Sunday, 11 October 2009

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले

मेरे पिताजी की संगीत में रूचि रही। उनकी मित्र मंडली भी ऐसी ही बनी। मुझे जो बचपन कि यादें हैं उन में से प्रमुख है कि रविवार को पूरा दिन संगीत कार्यक्रम चलता था। कैसेट के आगमन पूर्व जब L P यानी Long Playing Records चलते थे, तबकी बात है।

दिन का आरम्भ मुकेश द्बारा गाये हुए "सुन्दरकाण्ड" से होता था। दिन में कहीं न कहीं मेहँदी हसन कि गाई हुई ग़ज़ल "गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले" जिसे "फैज़ अहमद फैज़" ने लिखा है, भी बजती। यद्यपि, आधे शब्द तो अब भी समझ नहीं आते, तब तो संभवत: एक भी शब्द पल्ले नहीं पढता होगा।

पर कर्णप्रिय होने के कारण कहीं बैठ गई। कुछ दिनों पहले कहीं सुनी, internet पर ढूंढी और अब आपके के सामने है. मेहँदी हसन के सर पर तब बाल थे, अब नहीं है, इतना अन्तर अवश्य है।




गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब -ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले

हुज़ोओर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

ग़ज़ल के शब्द साभार www.kavitakosh.org नामक website से लिए गए हैं।


फैज़ का चित्र

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