बचपन में पिताजी एक कविता सुनाते थे, नीरज जी की लिखी हुई,
"चुप चुप अश्रु बहाने वालों - मोती व्यर्थ बहाने वालो.............................."
तब से नीरज जी से परिचय हुआ। फिर IIT के यूथ फेस्टिवल में नीरज जी को सुना.
आज न जाने कैसे इस ब्लॉग पर पहुँचा जहाँ नीरज जी की ही आवाज में गई कविता है - चाँदनी में घोला जाय फूलोंका शबाब।
इस कविता पर बाद में फिल्मी गीत बना था "शोखियों में घोला जाए..........
एक अन्य कविता मिली - नीरज जी ही आवाज में - कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे.....
नीरज जी की आवाज गहरी है, मादक है। आनंद लें।
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गयी
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गयी
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गयी
चाह तो सकी निकल न पर उमर निकल गयी
गीत अश्क़ बन गए, छंद हो दफ़न गए
साथ के सभी दिए, धुआँ-धुआँ पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गूजर गया गुबार देखते रहे
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
और हम लुटे-लुटे, वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर, शाम बन गयी सहर
वह उठी लहर कि ढह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
माँग भर चली कि एक जब नयी-नयी किरण
ढोलकें ढुमुक उठीं ठुमुक उठे चरण-चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पडा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भारी, गाज एक वह गिरी
पुंछ गया सिन्दूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से, दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
एक छंद और है जो कि फ़िल्मी गीत में शायद नहीं है.
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