Tuesday, 5 October 2010

एक छोटे से प्रश्न का जवाब

अयोध्या में राम जन्म स्थान पर मंदिर बनाये जाने के विरोधियों इस तरह के जुमले कसकर अयोध्या में राम जन्मस्थान पर मंदिर बनाये जाने का विरोध कर रहे हैं, उन्हैं भी एक छोटे से प्रश्न का जवाब देना ही चाहिये कि बिना स्वाभिमान और आत्मगौरव जागृति के यह आर्थिक तरक्की कितने दिन टिक पायेगी ?

क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं जो आक्रांताओं के स्मारकों को संरक्षण प्रदान करे और भारत को स्वतंत्र देखने की चाह में हंसते हंसते फांसी पर झूल जाने वाले भगतसिंह को आतंकवादी कहे।

जो लोग अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का विरोध कर रहे हैं, उन्हैं इस बात को तो समझना ही होगा कि भारत में राम के लिए मंदिर बनाने वाले लोगों और जगहों की कोई कमी नहीं है, लेकिन यह बात देश की रीति नीति और अंतरात्मा की है।

प्रश्न यह भी है कि हम हमारी संस्कृति, सभ्यता और विरासत को नष्ट करने वाले हमलावरों को नकारने की हिम्मत रखते हैं या नहीं ?

क्यों नहीं सारे राजनेता मिलकर इस सच्चाई को सामने रखते कि मात्र 300 मुगलों ने तोप और गाय को आगे रखकर भारत की साँस्कृतिक चेतना को कुचलने का अपराध किया था, आज जो पाकिस्तान और बंगलादेश सहित भारत में मुस्लिम दिखाई पड़ते हैं वे इन हमलावरों के आने से पहले इसी आर्यावर्त की महान संतानों के वंशज हैं।

क्यों नहीं पूरे देश को यह बताया जाता कि जब जिन्ना के सामने घुटने टेकते हुए हमने भारत के विभाजन को स्वीकार किया था और मुस्लिमों के लिए पाकिस्तान का गठन किया था, तो भारत में रहने वाले मुस्लिमों ने पंडों, भाटों, रावों और अन्य वंशलेखकों के पास जाकर अपनी जडें खोजने और अपने गौत्र निकालने के प्रयास शुरू कर दिये थे।

आखिर पूरे देश को यह क्यों नहीं बताया जाता कि भारत में उस समय रहने वाला एक एक मुसलमान चीख चीख कर कह रहा था कि हम हिन्दुओं की संतान हैं और हमारी उपासना पद्धति इस्लामिक है।

पूरे विश्व में भारत ही तो है जो सभी उपासना पद्धतियों को फलने फूलने का अवसर प्रदान करता है।

जहां शैव, शाक्त, जैन, बुद्ध, सिख, पारसी समुदाय के लोग अपनी विभिन्न उपासना पद्धतियों के साथ इस देश में स्वाभिमान के साथ रह सकते हैं तो फिर वे कौन लोग थे जिन्होंने इस उपासना पद्धति को मजहब में बदलने का अपराध किया ?

आखिर देश को यह जानने का अधिकार तो है कि 1947 में मृत हो चुकी मुस्लिम लीग इस देश में किन राजनेताओं की सत्ता पिपासा के कारण पुन: उठ खड़ी हुई ?

क्या भारत में उन हमलावरों के नाम पर दिल्ली में बड़ी बड़ी सड़के नहीं हैं ?

भारत में जिलों के नाम उन पर नहीं हैं ?

उन हमलावरों की बर्बरता का सजीव चित्रण करती हुई मस्जिदें भारत की सांझी विरासत कैसे हो सकती हैं ?

प्रश्न यह है क्या कोई शासक अपनी ही प्रजा पर इस तरह के जुल्म करता है?

इस तरह के जुल्म तो हमलावर शासक करते हैं, जिनकी इच्छा होती है कि आम जनता उनकी बर्बता से घबराकर उनकी शरणागति स्वीकार कर ले और अपनी जान बचाने के लिए उन्हीं के पंथ और मजहब को स्वीकार कर ले।

तो क्या यह माना जाए कि आजाद भारत की सरकारें अपनी संतानों को यह बताना चाहती हैं कि जिन हमलावरों ने हमारी अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया, हमारे पूर्वजों को लूटा, उनकी हत्याएं कर दीं, हम उन हमलावरों को हमारी विरासत के नाम पर उदारमना होकर स्वीकार करें।

हमारी संताने उन हमलावरों को कैसे संरक्षण दे सकती हैं ?

राजनेताओं की जरूरत वोट है, और उसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, हमलावरों को पूज भी सकते हैं।

लेकिन यह तय भारत की जनता को करना है कि वह इन हमलावरों को अपनी ‘विरासत’ माने या नहीं।

बात सिर्फ अयोध्या में राम मंदिर बनाने की जिद की नहीं है, बात यह है कि हम आजादी के बाद से लेकर आज तक अपने देश की दशा और दिशा तय नहीं कर पाये।

तो जो काम हमारे राजनेता नहीं कर पाये उसे ‘रामजी’ को ही पूरा करना पडेगा।

सौजन्य से : मित्र कुशल सचेती

जय श्री राम

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